स्वप्न मेरे: दिसंबर 2008

बुधवार, 31 दिसंबर 2008

घर मेरा मेरी जियारत

२००९ की ढेरों शुभ-कामनाएं

नव वर्ष मंगलमय हो, सबके दुखों का क्षय हो
प्रभू चरण में वंदन है, सबका जीवन सुखमय हो

इस साल की अन्तिम रचना है यह, आप सब का आभार है जो मुझे प्रोत्साहित करते रहते हैं.


प्यार से कैसी शिकायत
प्यार तो रब की अमानत

हम भी तेरे दिल में रहते
वक़्त की होती इनायत

चूमते क़दमों को तेरे
आप की होती इजाज़त

ताज है जिनके सरों पर
लोग करते हैं इबादत

धूप या सर्दी का मौसम
बेघरों पर है क़यामत

काट कर पीपल घरों का
धूप से क्यों है शिकायत

देश की सीमायें अक्सर
खून से लिक्खी इबारत

जंग का ऐलान है यह
आग से जलती इमारत

मार खाते, लौट आते
है यही कुत्तों की आदत

बारिशों ने फूल धोये
खुशबुओं ने की बगावत

हाथ में जिनके छुरा था
मिल गयी उनको ज़मानत

आस्था या सत्य है यह
आब-ऐ-गंगा में नज़ाफत

लौट कर कब जाउंगा मैं
घर मेरा मेरी जियारत

(नज़ाफत - शुद्धता, स्वछता, जियारत-तीर्थ यात्रा, धर्म स्थल पर जाना)

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

अधूरी दास्ताँ

टूट कर बिखरे हुवे पत्थर समय से मांगते
कुछ अधूरी दास्ताँ खंडहर समय से मांगते

क्यों हुयी अग्नी परीक्षा, दाव पर क्यों द्रोपदी
आज भी कुछ प्रश्न हैं उत्तर समय से मांगते

हड़ताल पर बैठे हुवे तारों का हठ तो देखिये
चाँद जैसी प्रतिष्ठा आदर समय से मांगते

चाँदनी से जल गए थे जिनके दरवाजे कभी
रौशनी सूरज की वो अक्सर समय से मांगते

फूल जो काँटों का दर्द सह नही पाते यहाँ
समय से पहले वही पतझड़ समय से मांगते

रविवार, 21 दिसंबर 2008

घंटियों में गूंजती अज़ान होना चाहिए

गीत जो गाना हो राष्ट्रगान होना चाहिए
घंटियों में गूंजती अज़ान होना चाहिए

बाइबल गीता यहाँ, कुरान होना चाहिए
जो कोई इनको पढ़े इंसान होना चाहिए

आज भी है इंतज़ार में तुम्हारे अहिल्या
राम को जाते हुवे यह भान होना चाहिए

गीदड़ों ने ओढ़ ली है खाल आज शेर की
आज से जंगल में जंगल राज होना चाहिए

आज फ़िर उठने लगा है दंभ शिशुपाल का
तर्जनी मैं चक्र का संधान होना चाहिए

टूट गयी व्यवस्था, न्याय है बिखरा हुवा
नया फ़िर से कोई संविधान होना चाहिए

होंसले को तुम जो मेरे चाहते हो तोलना
साथ कश्ती के मेरे तूफ़ान होना चाहिए

सागर जमीं आकाश चाँद सब तुम्हारे नाम है
दो गज हि सही मेरा भी मकान होना चाहिए

गाँव के बरगद तले डेरा है काले मेघ का
सूख गयी जो ज़मी, खलिहान होना चाहिए

छोड़ दो मुझको या दे दो कैद सारे उम्र की
मेरी ग़ज़ल इकबालिया बयान होना चाहिए

ढूंढते हो काहे मुझको अर्श की गहराई मैं
मील का पत्थर मेरा निशान होना चाहिए

पंछियों के घोंसलों से एक ही आवाज़ है
बेखोफ उड़ सकें वो आसमान होना चाहिए

अमावस के शहर में जुगनू है मेरी जेब में
उनके महल के सामने मकान होना चाहिए

शनिवार, 20 दिसंबर 2008

एहसास

अक्सर ऐसा हुवा है
बहूत कोशिशों के बाद
जब उसे मैं छू न सका
सो गया मूँद कर आँखें अपनी
बहुत देर तक फ़िर सोया रहा
महसूस करता रहा उसके हाथ की नरमी
छू लिया हल्हे से उसके रुखसार को
उड़ता रहा खुले आसमान में
थामे रहा उसका हाथ
चुपके से सहलाता रहा उसके बाल
पर हर बार
जब भी मेरी आँख खुली
अचानक सब कुछ दूर
बहुत दूर हो गया
क्या वो सिर्फ़ इक एहसास था...................
एहसाह जिसे महसूस तो किया जा सकता है
पर जागती आखों से छुआ नही जा सकता
जागती आंखों से छुआ नही जाता

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

रिश्ते

काश ये रिश्ते
पतझड़ के पत्तों की तरह होते
मौसम के साथ बदल जाते....

काश ये रिश्ते
बादल की तरह होते
बरसते बिखर जाते....

काश ये रिश्ते
बहती हवा होते
छूते गुज़र जाते....

दिल के किसी कोने मैं
गहरा घाव तो न बनाते
आंसूं बन कर
पिघलते तो न रहते....

कितना अच्छा होता,
ये रिश्ते ही न होते................

रविवार, 14 दिसंबर 2008

ग़ज़ल

हाथ में जुम्बिश नज़र में ताब जब तक
कलम से लिक्खुंगा इन्कलाब तब तक

रौशनी का अपनी इंतज़ाम रक्खो
अर्श मैं जलता है आफताब कब तक

गुज़र गए दो, अभी बाकी हैं दो दिन
वक्त के सहता रहूँ अज़ाब कब तक

जब तलक साँसें है, दिल है और तुम हो
देख लूँगा ज़िन्दगी के ख्वाब तब तक

तोड़ कर यादों का कफ़स जान लोगे
जब तलक यादें हैं इज़्तिराब तब तक

चाहता हूँ फ़िर नयी शैतानियाँ करना
माँ तुझे आ जाए न इताब जब तक

उजड़ी हुयी इमारतों के ईंट पत्थर
मांगते हैं जुल्म का हिसाब अब तक

नज़रें झुकाए, हाथ जोड़े,मुस्कुरा कर
शैतान अब मिलेंगे इन्तिखाब जब तक

चंद लम्हे ही सही जी लो तमाम जिंदगी
ख्वाहिश औ अरमान की किताब कब तक

जब तलक जागे हैं पासबान-ऐ-चमन
हर कली, खिलता हुवा गुलाब तब तक

(अज़ाब-दर्द, इज़्तिराब-चिंता बैचेनी, इताब-क्रोध गुस्सा, इन्तिखाब-चुनाव)

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

व्यथा

मेरे घर के सामने से, तुम जो गुज़रो मुसाफिर,
ठहर जाना पल दो पल पीपल की ठंडी छाँव में....

हो भला सूखे हुवे पत्तों की आवाज़ें वहाँ,
टकटकी बांधे हुवे बूढा खड़ा होगा जहाँ,
रात में घर लौट कर पंछी न कोई आएगा,
सुबह से ही गीत कोई विरह के फ़िर गायेगा,

कुछ उदास चूड़ियाँ खनकेंगी तुम को देख कर,
खिड़कियों से झांकती आँखें मिलेंगी गाँव में,
ठहर जाना पल दो पल पीपल की ठंडी छाँव में....

लौट कर आती हुई लहरों से तुम फ़िर पूछना,
साहिलों की रेत में उनका निशां तुम ढूंढ़ना,
पूछना उस हवा से आयी है जो छु कर उन्हे,
क्या कभी भी याद आता है पुराना घर उन्हे,

तोड़ न देना वो दिल, पूछे जो तुमसे चीख कर,
कहाँ हैं वो मुसाफिर बैठे थे कल जो नाव में,
ठहर जाना पल दो पल पीपल की ठंडी छाँव में....

बुधवार, 10 दिसंबर 2008

ग़ज़ल

आज फ़िर मंथन हुवा है, ज़हर है छिटका हुवा
आज शिव ने कंठ मैं फ़िर गरल है गटका हुवा

देखने हैं और कितने महा-समर आज भी
है त्रिशंकू आज भी इस भंवर में भटका हुवा

पोंछना है दर्द तो दिल के करीब जाओ तुम
दूर से क्यूँ देखते हो दिल मेरा चटका हुवा

राह सूनी, आँख रीति, जोड़ कर तिनके सभी
मुद्दतों से शाख पर है घोंसला लटका हुवा

इक समय था जब समय मुट्ठी मैं मेरी कैद था
अब समय है, मैं समय के चक्र में अटका हुवा

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

ग़ज़ल

फ़िर कोई खण्डहर विराना ढूँढ़ते हो
मुझसे मिलने का बहाना ढूँढ़ते हो

पौंछ डाला शहर का इतिहास सारा
काहे अब पीपल पुराना ढूँढ़ते हो

इस शहर की बस्तियाँ वीरान हैं
तुम शहर में आबो-दाना ढूँढ़ते हो

गौर से क्यों देखते हो आसमां को
दोस्त या गुज़रा ज़माना ढूँढ़ते हो

मैं जड़ों को सींचता हुं, आब हूँ मैं
क्यूँ अब्र में मेरा ठिकाना ढूँढ़ते हो

रात की चादर लपेटे सोई हैं सड़कें
क्यूँ हादसे,किस्सा,फ़साना ढूँढ़ते हो

लहू से लिक्खा है हर अल्फाज़ मैंने
तुम ग़ज़ल का मुस्कुराना ढूँढ़ते हो

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

जीवन

सुख जो तूने भोगा है, दुःख भी तुझको सहना है
दीपक चाहे तेज़ जले, तल में तो अँधेरा रहना है

लोभ, मोह, माया की मद में, अँधा हो कर दौड़ रहा
अंत समय में सब को भईया राम नाम ही कहना है

तेरा मेरा सबका जीवन पल दो पल का लेखा है
गिन कर सबकी साँसे, चोला पञ्च-तत्त्व का पहना है

सागर की लहरों सा जीवन तट की और है दौड़ रहा
किस को मालुम तट को छू कर लहरों को तो ढहना है

मुँह न मोड़ो तुम सपनो से, सपनो से तो है जीवन
सपने जब तक आंखों में, जीवन चलते रहना है



खुशियाँ सबकी अपनी, दुःख भी सबका अपना हैं
जीवन बच्चे की मुट्ठी में, रेत भरा इक सपना है

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

आँगन

बरसों हो गए उस घर को छोड़े जो आज भी छाया रहता है मेरे ज़हन में,पिछले १५ वर्षों में जाने कितने हि घरों मैं रहा हूँ, पर कोई भी 'अपने आँगन" जैसा नही लगता,उसकी याद, उसकी खुशबू, वहां गुज़ारा एक एक लम्हा, आज भी मन को गुदगुदाता है|

यह कविता, बहुत पहले उस आँगन की याद में शुरू हुई, यादें जुड़ती गयीं, कविता बनती गयी,जाने कितने छंद इसमे और जुडेगें, क्यूंकि वो आँगन तो आज भी उतना ही ताज़ा है, जितना कल था|


आँगन में बिखरे रहे, चूड़ी कंचे गीत
आँगन की सोगात ये, आँगन के हैं मीत

आँगन आँगन तितलियाँ, उड़ती उड़ती जाएँ
इक आँगन का हाल ये, दूजे से कह आएँ

बचपन फ़िर योवन गया, जैसे कल कि बात
आँगन तब भी साथ था, आँगन अब भी साथ 

आँगन में रच बस गयी, खट्टी मीठी याद
आँगन सब को पालता, ज्यों अपनी औलाद

तुलसी गमला मध्य में, गोबर लीपा द्वार
शिव के सुंदर रूप में, आँगन एक विचार

सुख दुःख छाया धूप में, आँगन सदा बहार
आँगन में सिमटा हुवा, छोटा सा संसार

कूंवा जोहड़ सब यहाँ, फ़िर भी बाकी प्यास
बाट जोहता पथिक कि, आँगन एक उदास

दुःख सुख छाया धूप में, भटक गया परिवार
मौन तपस्वी सा रहा, आँगन का व्यवहार

इक इक कर सब छोड़ गए, नाते रिश्तेदार
आँगन में खिलता रहा, फ़िर भी सदाबहार

इक कोने में पेड़ है, दूजे में गोशाल
तीजे ठाकुरद्वार है, आँगन के रखवाल

आँगन से बरसात है, आँगन से है धूप
आँगन जैसे मोहिनी, शिव का सुंदर रूप