स्वप्न मेरे: फ़रवरी 2010

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

सोदा

विकसित होने से पहले
कुचल जाते हैं
कुछ शब्दों के भ्रूण

बाहर आने से पहले
फँस जाते हैं होठों के बीच
कुछ जवाब

द्वंद में उलझ कर
दम तोड़ देते हैं
कुछ विचार

हथेलियों में दबे दबे
पिघल जाता है आक्रोश

पेट की आग
जिस्म की जलन
उम्मीद का झुनझुना
मौत का डर
मुक्ति की आशा
अधूरे स्वप्न
जीने की चाह
कुछ खुला गगन

पूंजीवाद की तिजोरी में बंद
गिनती की साँसें के बदले
सोदा बुरा तो नही ......

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

गुबार

कुछ अनसुलझे सवाल
कुछ हसीन लम्हे
जिस्म में उगी
आवारा ख्वाबों की
भटकती नागफनी

कितना कुछ
एक ही साँस में कहने को
भटकते शब्द

डिक्शनरी के पन्नों की
फड़फड़ाहट के बीच
कुछ नये मायने तलाशते
बाहर आने की छटपटाहट में
अटके शब्द

एक मुद्दत से
होठों के मुहाने
पलते शब्द

तेरे आने का लंबा इंतज़ार

फिर अचानक
तू आ गयी इतने करीब
मुद्दत से होठों के मुहाने
पलते शब्द
फँस कर रह गये
होठों के बीच

वो मायने
जिन्हे शब्दों ने
नये अर्थ में ढाला

आँखों की उदासी ने
चुपचाप कह डाला

सुना है

आँखों की ज़ुबान होती है.....

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

ख्वाबों के पेड़ ...

मेरे जिस्म की
रेतीली बंजर ज़मीन पर
ख्वाब के कुछ पेड़ उग आए हैं
बसंत भी दे रहा दस्तक
चाहत के फूल मुस्कुराए हैं

भटक रहे हैं कुछ लम्हे
तेरी ज़मीन की तलाश में
बिखर गये हैं शब्दों के बौर
तेरे लबों की प्यास में

अब हर साल शब्दों के
कुछ नये पेड़ उग आते हैं
नये मायनों में ढल कर
रेगिस्तान में जगमगाते हैं

अभिव्यक्ति की खुश्बू को
बरसों से तेरी प्रतीक्षा है

सुना है बरगद का पेड़
सालों साल जीता है ....

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

चाहत

चाहत
इक मधुर एहसास
पाने की नही
मुक्ति की प्यास

स्वयं को सुनाई देता
मौन स्पंदन
सीमाओं में बँधा
मुक्त बंधन

अनंत संवाद
प्रकृति से छलकता
विमुक्त आह्लाद
श्रिष्टी में गूँजता
अनहद नाद
अंतस से निकला
शाश्वत राग

अर्थ से परे
अभिव्यक्ति से आगे

क्या संभव है शब्दों में
प्रेम समेट पाना

क्या संभव है प्रेम को
भाषा में व्यक्त कर पाना

क्या संभव है अभिव्यक्ति को
सही शब्द दे पाना

क्या संभव है
चाहत के विस्त्रत आकाश को
शब्दों में बाँध पाना

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

कैसे जीवन बीतेगा

राशन नही मिलेगा भाषन
पीने को कोरा आश्वासन
नारों की बरसात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा

भीख मांगती भरी जवानी
नही बचा आँखों का पानी
बेशर्मी से बात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा

जातिवाद का जहर घोलते
राष्ट्र वेदी पर स्वार्थ तोलते
अपनो का प्रतिघात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा

आदर्शों की बात पुरानी
संस्कार बस एक कहानी
मानवता पर घात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा

नियम खोखले, तोड़े हैं दम
मैं ही मैं है, नही बचा हम
निज के हित की बात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा