स्वप्न मेरे: जनवरी 2013

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

माँ का दिल ...


कहते हैं गंगा मिलन
मुक्ति का मार्ग है

कनखल पे अस्थियां प्रवाहित करते समय
इक पल को ऐसा लगा
सचमुच तुम हमसे दूर जा रही हो ...

इस नश्वर संसार से मुक्त होना चाहती हो
सत्य की खोज में
श्रृष्टि से एकाकार होना चाहती हो

पर गंगा के तेज प्रवाह के साथ
तुम तो केवल सागर से मिलना चाहती थीं
उसमें समा जाना चाहती थीं

जानतीं थीं
गंगा सागर से अरब सागर का सफर
चुटकियों में तय हो जाएगा    
उसके बाद तुम दुबई के सागर में
फिर से मेरे के करीब होंगी ...    

किसी ने सच कहा है
अपनी माँ के दिल को जानना
मुश्किल नहीं ...  

(१३ वर्षों से दुबई रहते हुवे मन में ऐसे भाव उठाना स्वाभाविक है) 

बुधवार, 16 जनवरी 2013

बता ... क्या करूं ...


तूने मेरा हाथ पकड़ा 
मैं चलने लगा 
फिर चलता गया, चलता गया, चलता गया 

पता नही कब हाथ छूटा    

या मैंने छुड़ा लिया ... 

आँख खुली तो तन्हा सड़क पे हांफ रहा था 

अजनबी आँखों की चुभन 
घात लगाए खूनी पंजे 

जानता हूं इस सब से बचने का ढंग माँ 

तूने ही तो सिखाया था 
जीने का अंदाज़ 
हालात से जूझने का संकल्प 

इन सब से पार पा लूँगा 
मुश्किलें भी आसान कर लूँगा 

पर एक बार फिर से 
तेरी ऊँगली पकड़ने का मन कर रहा है 
बच्चा होने का मन कर रहा है 

बता क्या करूं ... 
   

बुधवार, 9 जनवरी 2013

साथ तेरा ...


होता तो मुझे था 
कुछ कुछ, हर बार    

कभी नाक बहती थी, कभी बुखार 
कभी भूत का डर तो कभी स्कूल की मार 
कभी नौकरी में समस्या 
कभी मासिक खर्च का भार 

मेरे किसी भी दुःख दर्द में 
तू तो हर वक़्त बस साथ होती थी 
सहलाती हुई 
दूर से मुस्कुराती हुई 

मन कहाँ मानता था 
तुझे कुछ हो भी सकता है 

गहरी खामोशी देख कर विश्वास न हुआ 
की तू इस दुनिया में नहीं है माँ 

हालांकि तेरे पास बैठे सब रो रहे थे   

आंसू तो शायद मेरे भी निकलने लगे थे 

पर एक मज़े की बात बताऊं    
इस बार भी दुःख मुझे ही हुवा    
और इस बार भी तू मेरे साथ ही थी 
दूर से मुस्कुराती हुई  

बुधवार, 2 जनवरी 2013

द्वंद्व ...


तमाम कोशिशों के बावजूद  
उस दीवार पे 
तेरी तस्वीर नहीं लगा पाया 

तूने तो देखा था 

चुपचाप खड़ी जो हो गई थीं मेरे साथ 
फोटो-फ्रेम से बाहर निकल के 

एक कील भी नहीं ठोक पाया था     
सूनी सपाट दीवार पे 

हालांकि हाथ चलने से मना नहीं कर रहे थे   
शायद दिमाग भी साथ दे रहा था 
पर मन ... 
वो तो उतारू था विद्रोह पे   

ओर मैं ... 

मैं भी समझ नहीं पाया 
कैसे चलती फिरती मुस्कुराहट को कैद कर दूं 
फ्रेम की चारदिवारी में    

तुम से बेहतर मन का द्वंद्व 
कौन समझ सकता है माँ ...