स्वप्न मेरे: जून 2015

सोमवार, 29 जून 2015

बुन्दा

हर पुराने को समेट के रखना क्या ठीक है ... फिर उन्ही पुरानी चीज़ों को बार बार देखना, फिर से सहेजना, क्या ये ठीक है ... क्या चीज़ों का, यादों का कूड़ा दर्द के अलावा कुछ देता है ... सहेजने के बाद क्या निकाल फैंकना आसान है इन्हें ... शायद हाँ, शायद ना ...

मुश्किल होता है
पुरानी दराज़ साफ़ करना
बेतरतीब बिखरी यादों के अनगिनत सफे
कुछ को फाड़ देना
कुछ को सीधे कचरे में ठेल देना
और कुछ को ...
अपनी ही नज़र बचा के सहेज लेना

यादें फैंकना
जिस्म से कई हजार साँसें नौच लेने के बराबर होता है
हालांकि उम्र फिर भी ख़त्म होने का नाम नहीं लेती

याद है अमावस की वो काली रात
मेरे सीने से लग के रोते रोते
तुम्हारे कान का बुन्दा अटक गया था मेरी कमीज़ के साथ
उस दिन नज़र बचा के जेब में रख लिया था मैंने उसे

तुम तो अपना बोझ हल्का करके चली गयीं
पर ये बुन्दा फांस की तरह अटका रहा सीने में
संभलते संभलते इक उम्र छिज गई थी जिंदगी से

इस बार सफों को समेटने की कोशिश में
वो बुन्दा भी छिटक आया दराज़ के किसी कोने से

कितनी अजीब बात है न ...
अब जब सांस कुछ थमने लगी थी
फांस की तरह अटकी यादें भी बह चुकी थीं
आज फिर ...
नज़र बचा कर ये बुन्दा सहेजने का मन करता है  

बुधवार, 24 जून 2015

सोच ...

प्रेम में डूब जाना योगी हो जाना तो नहीं ... फिर जीवन से आगे किसने देखा ... अचानक एक छोटे से सुख का मिलना, फिर उस सुख को अपने ही आस-पास बनाये रखने की चाह बनाए रखना ... थोड़ा सा स्वार्थी होना बेमानी तो नहीं ...

क्योंकि ऊंचाई का सफ़र
तन्हाई के रास्ते से गुज़रता है
मैं यह नहीं कहूँगा
की तुम जीवन में नई ऊँचाइयाँ छुओ

मैंने तो अपनी उड़ान का दायरा
उसी दिन तय कर लिया था
जिस दिन तुम ज़िन्दगी में आईं

मैं यह भी नहीं कहूँगा
तुमको मेरी उम्र लग जाए

क्योंकि मेरी उम्र की सीमा तो तय है
तुम्हारी उम्र की तरह
और में जीना चाहता हूँ हर गुज़रता लम्हा
तेरे और बस तेरे ही साथ

हाँ मैं जानता हूँ
खुदगर्जी की पराकाष्ठा है ये
अपने से आगे नहीं सोच पाने का स्वार्थ

पर क्या करूं ये सोच ये सोच भी तो कमबख्त
तेरे पे आकर ही ख़त्म होती है

गुरुवार, 18 जून 2015

सुनहरी सफ़र-नामा ...

चमकते मकान, लम्बी कारें, हर तरह की सुविधाएँ, दुनिया नाप लेने की ललक, पैसा इतना की खरीद सकें सब कुछ ... क्या जिंदगी इतनी भर है ... प्रेम, इश्क, मुहब्बत, लव ... इनकी कोई जगह है ... या कोई ज़रुरत है ... और है तो कब तक ... कन्फ्यूज़न ही कन्फ्यूज़न उम्र के उतराव पर ... पर होने को तो उम्र के चढ़ाव पर भी हो सकता है ...

इससे पहले की झरने लगे प्रेम का ख़ुमार
शांत हो जाए तबाही मचाता इश्क का सैलाब
टूटने लगें मुद्दतों से खिलते जंगली गुलाब
धुंधलाने लगें ज़िंदगी की किताब पे लिखे आसमानी हर्फ़
उतरने लगे आँखों में हकीकत का मोतिया
कडुवा सच लिए "अल्जाइमर" की खौफनाक चालें
जला डालें खुशबू भरी यादों के हसीन मंज़र

खड़ी कर लेना मुहब्बत की चमचमाती इमारत

घूम आना उन तमान रास्तों पर
जहां इश्क की गर्मी से जंगली फूल खिला करते थे
बसा लेना चौंच लड़ाते पंछियों की कुछ यादें
कैद कर लेना पलकें झुकाए सादगी भरा उनका रूप
 
पुराने किले की किसी ऊंची सी लाल मीनार पर
खोद आना नुकीले पत्थर से अपना नाम

की करना है दर्ज वर्तमान होते इतिहास में
अपनी मुहब्बत का भूला बिसरा सुनहरी सफ़र-नाम




सोमवार, 8 जून 2015

अनकहे सच ...

हर प्रेम की इन्तहा मिलन तो नहीं ... फिसलन भरी राह कुछ पलों में जीवन गाथा से गुज़र जाती है पर बीते समय की हर गाथा सुहानी हो, जरूरी नहीं ... हर अतीत की याद मीठी हो, ये भी तो जरूरी नहीं ...

खुद की तलाश में
समय की काली पगडण्डी पर
इतना पीछे लौट गया की
बिखरी यादों के गोखरू पैरों को लहू-लुहान करने लगे
गुज़रे लम्हों के आवारा भूत ठेंगा दिखाने लगे

चुपके चुपके चलता बे-आवाज पदचापों का शोर
सीसा डालने के बावजूद बहरा करने लगा
जगह जगह बिखरे सपनों के अधजले कचरे सड़ांध मारने लगे
सांस लेने की मजबूरी में तेरी खुशबू लिपटी हवा
फेफड़ों को खोखला करने लगी

जीने मरने की कसमों के सियारी पद-चाप
विश्वास के जंगली कुत्तों की गुर्राहट

झपट्टा मारने को तैयार
प्रेम की खूनी इबारत से हांफती खूंखार बिल्लियाँ
दबे पाँव मुझको घेरने लगीं

चाँद की पीली रौशनी और तेरे बादली साए की धुंध के बीच
अनगिनत शक्लें बदलता समय
तेरे ही अक्स में तब्दील होने लगा

पलटी हुयी सफ़ेद आँखों की चुभन
काले बालों का बढ़ता जंगल
और नैपथ्य से आती विद्रूप हंसी की आवाजें
मुझे अपने आप से खींचने लगीं हैं

घुटन बढ़ने लगी है  ...

यकायक दूर से आती
फड़फड़ाते पन्नों की आवाज चुप हो जाती है
डायरी के पन्नों में इतिहास होता वर्तमान
साँस लेने लगता है