स्वप्न मेरे: बस यही माँ की इक निशानी थी ...

शुक्रवार, 11 मार्च 2016

बस यही माँ की इक निशानी थी ...

ट्रंक लोहे का सुरमे-दानी थी
बस यही माँ की इक निशानी थी

अब जो चुप सी टंगी है खूँटी पे
ख़ास अब्बू की शेरवानी थी

मिल के रहते थे मौज करते थे
घर वो खुशियों की राजधानी थी

झील में तैरते शिकारे थे
ठण्ड थी चाय जाफ़रानी थी

छोड़ के जा रही थी जब मुझको
मखमली शाल आसमानी थी

उम्र के साथ ही समझ पाया
हाय क्या चीज़ भी जवानी थी

उफ़ ये गहरा सा दाग माथे पर
बे-वफ़ा प्यार की निशानी थी
(तरही गज़ल) 

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