स्वप्न मेरे: मार्च 2017

सोमवार, 27 मार्च 2017

कहानी प्रेम की? हाँ ... नहीं ...

वो एक ऐहसास था प्रेम का जिसकी कहानी है ये ... जाने किस लम्हे शुरू हो के कहाँ तक पहुंची ... क्या साँसें बाकी हैं इस कहानी में ... हाँ ... क्या क्या कहा नहीं ... तो फिर इंतज़ार क्यों ...

हालांकि छंट गई है तन्हाई की धुंध
समय के साथ ताज़ा धूप भी उगने लगी है  
पर निकलने लगे हैं यादों के नुकीले पत्थर
जहाँ पे कुछ हसीन लम्हों की इब्तदा हुई थी

गुलाम अली की गज़लों से शुरू सिलसिला
शेक्सपीयर के नाटकों से होता हुवा
साम्यवाद के नारों के बीच
समाजवाद की गलियों से गुज़रता
गुलज़ार की नज्मों में उतर आया था

खादी के सफ़ेद कुर्ते ओर नीली जीन के अलावा   
तुम कुछ पहनने भी नहीं देतीं थीं उन दिनों
मेरी बढ़ी हुई दाड़ी ओर मोटे फ्रेम वाले चश्में में
पता नहीं किसको ढूँढती थीं

पढ़ते पढ़ते जब कभी तुम्हें देखता  
दांतों में पेन दबाए मासूम चेहरे को देखता रहता     
नज़रें मिलने पर तुम ऐसे घबरातीं
जैसे कोई चोरी पकड़ी गई   
फिर अचानक मेरा माथा चूम 
कमरे से बाहर
जब ज़ोर ज़ोर से हंसती 
तो आते जातों की नज़रों में
अनगिनत सवाल नज़र आते थे मुझे

मैं तो उन दिनों समझ ही नहीं पाता था
ये प्यार है के कुछ ओर ...
हालांकि मैंने ... दीन दुनिया से बेखबर
सब कुछ बहुत पहले से ही तुम्हारे नाम कर दिया था

फिर वक़्त ने करवट बदली
रोज़ रोज़ का सिलसिला हफ़्तों और महीनों में बदलने लगा
एक जीन ओर कुछ खादी के कुर्तों के सहारे
मैंने तो जिंदगी जीने का निश्चय कर ही लिया था
पर शायद तुम हालात का सामना नहीं कर सकीं

तुम्हारे चले जाने के बाद वो तमाम रास्ते
नागफनी से चुभने लगे थे   
रुके हुवे लम्हों की नमी में काई सी जमने लगी थी
अजीब सी बैचैनी से दम घुटने लगा था

खुद को हालात के सहारे छोड़ने से बैहतर
कोई ओर रास्ता नज़र नहीं आया था मुझे

धीरे धीरे वक़्त के थपेड़ों ने
दर्द के एहसास में खुश रहने का ढब समझा दिया 

मुद्दत बाद आज फिर
उम्र के इस मुकाम पे वक़्त की इस बे-वक्त करवट ने
तेरे शहर की दहलीज पे ला पटका है
तेरी यादों के नुकीले पत्थर दर्द तो दे रहे हैं
पर आज धूप की चुभन
पुराने लम्हों का एहसास लिए
मीठी ठंडक का एहसास दे रही है

क्या तुम भी गुज़रती हो कभी इन लम्हों के करीब से  

सोमवार, 20 मार्च 2017

आज और बस आज ...

मुसलसल रहे आज तो कितना अच्छा ... प्रश्नों में खोए रहना ... जानने का प्रयास करना ... शायद व्यर्थ हैं सब बातें ... जबरन डालनी होती है जीने की आदत आने वाले एकाकी पलों के लिए ... भविष्य की मीठी यादों के लिए  वर्तमान में कुछ खरोंचें डालना ज़रूरी है, नहीं तो समय तो अपना काम कर जाता है ...

जिंदगी क्या है
कई बार सोचने की कोशिश में भटकता है मन
शब्दकोष में लिखे तमाम अर्थ
झड़ने लगते हैं बेतरतीब
और गुजरते वक्त की टिकटिकी
हर पल जोड़ती रहती है नए सफे जिंदगी के अध्याय में

वक्त के पन्नों पर अगर नहीं उकेरा
खट्टी-मीठी यादों का झंझावात
नहीं खींचा कोई नक्शा सुनहरी शब्दों के मायने से  
अगर नहीं डाली आदत वर्तमान में जीने की  

तो इतना ज़रूर याद रखना

जिंदगी के कोरे सफे पर  
समय की स्याही बना देती है जख्मी निशान  
कुछ शैतानी दिमाग गाड़ देते हैं सलीब
रिसते हैं ताज़ा खून के कतरे जहाँ से उम्र भर

ज़रूरी है इसलिए हर अवस्था के वर्तमान को संवारना
पल-पल आज को जीने की आदत बनाना 
ताकि भविष्य में इतिहास की जरूरत न रहे  

मंगलवार, 14 मार्च 2017

दर्द ...

अपना अपना अनुभव है जीवन ... कभी कठोर कभी कोमल, कभी ख़ुशी तो कभी दर्द ... हालांकि हर पहलू अपना निशान छोड़ता है जीवन में ... पर कई लम्हे गहरा घाव दे जाते हैं ... बातें करना आसान होता है बस ...

लोग झूठ कहते हैं दर्द ताकत देता है
आंसू निकल आएं तो मन हल्का होता है
पत्थर सा जमा
कुछ टूट कर पिघल जाता है

पर सच कहूँ ...

दर्द इंसान को ख़ुदग़र्ज़ बना देता है
सहलाने वाले हाथों पर फफोले उगा देता है
सहते सहते संवेदनहीन बना देता है   

बहते हुवे आंसू
पानी नहीं दर्द का सागर होते हैं
ऐसी आग जो पूरे शरीर को झुलसा देती है   

किसी की यादों का सैलाब जो रिस्ता है धीरे धीरे  
और उजाड देता हैं सपनों को चिंदी-चिंदी

लोग झूठ कहते हैं दर्द ताकत देता है ...

सोमवार, 6 मार्च 2017

तलाश ...

तलाश ... शब्द तो छोटा हैं पर इसका सफ़र, इसकी तलब, ख़त्म नहीं होती जब तक ये पूरी न हो ... कई बार तो पूरी उम्र बीत जाती है और ज़िन्दगी लौट के उसी लम्हे पे आ आती है जहाँ खड़ा होता है जुदाई का बेशर्म लम्हा ... ढीठता के साथ ... 

उम्र के अनगिनत हादसों की भीड़ में
दो जोड़ी आँखों की तलाश
वक़्त के ठीक उसी लम्हे पे ले जाती है
जहाँ छोड़ गईं थीं तुम
वापस ना लौटने के लिए

उस लम्हे के बाद से
तुम तो हमेशा के लिए जवान रह गईं  

पर मैं ...

शरीर पर वक़्त की सफेदी ओढ़े
ढूँढता रहा अपने आप को

जानता हूं हर बीतता पल
नई झुर्रियां छोड़ जाता है चेहरे पे
गुज़रे हुवे वक़्त के साथ
उम्र झड़ती है हाथ की लकीरों से
पर सांसों का ये सिलसिला
ख़त्म होने का नाम नहीं लेता

पता नहीं वो लम्हा 
वक़्त के साथ बूढ़ा होगा भी या नहीं ...