स्वप्न मेरे: जून 2017

मंगलवार, 27 जून 2017

सुकून ...

सुकून अगर मिल सकता बाज़ार में तो कितना अच्छा होता ... दो किलो ले आता तुम्हारे लिए भी ... काश की पेड़ों पे लगा होता सुकून ... पत्थर मारते भर लेते जेब ... क्या है किसी के पास या सबको है तलाश इसकी ...


नहीं चाहता प्यार करना
के जीना चाहता हूं कुछ पल सुकून के
अपने आप से किये वादों से परे

उड़ना चाहता हूं उम्मीद के छलावों से इतर
के छू सकूँ आसमां
फिर चाहे न आ सकूँ वापस ज़मीन पर

गिरती पड़ती लहरों के सहारे
जाना चाहता हूं समय की चट्टान के उस पार    
जुड़ती है सीमा नए आकाश की जहाँ    
स्वार्थ से अलग, प्रेम से जुदा
गढ़ सकूँ जहाँ अपने लिए नई दुनिया  
के जीना चाहता हूं कुछ पल सुकून के 
जंगली गुलाब की यादों से अलग ... 

सोमवार, 19 जून 2017

कैसे कह दूं ...

सुलगते ख्वाब ... कुनमुनाती धूप में लहराता आँचल ... तल की गहराइयों में हिलोरें लेती प्रेम की सरगम ... सतरंगी मौसम के साथ साँसों में घुलती मोंगरे की गंध ... क्या यही सब प्रेम के गहरे रिश्ते की पहचान है ... या इनसे भी कुछ इतर ... कोई जंगली गुलाब ...

झर गई दीवारें
खिड़की दरवाजों के किस्से हवा हुए
मिट्टी मिट्टी आंगन धूल में तब्दील हो गया
पर अभी सूखा नहीं कोने में लगा बबूल
कैसे मान लूं की रिश्ता टूट गया

अनगिनत यादों के काफिले गुज़र गए इन ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर
जाने कब छिल गयी घर जाने वाली सड़क की बजरी
पर बाकी है, धूल उड़ाती पगडण्डी अभी
कैसे मान लूं की रिश्ता टूट गया

कुछ मरे हुवे लम्हों की रखवाली में 
मेरे नाम लिखा टूटा पत्थर भी ले रहा है सांसें  
कैसे मान लूं की रिश्ता टूट गया

कई दिनों बाद इधर से गुज़रते हुए सोच रहा हूँ    
हिसाब कर लूं वक़्त के साथ
जाने कब वक़्त छोड़ जाए, वक़्त का साथ

फिर उस जंगली गुलाब को भी तो साथ लेना है 
खिल रहा है जो मेरी इंतज़ार में ... 

मंगलवार, 6 जून 2017

तितर बितर लम्हे ...

समय की पगडण्डी पे उगी मुसलसल यादें, इक्का दुक्का क़दमों के निशान ... न खत्म होने वाला सफ़र और गुफ्तगू तनहाई से ... ये लम्हे कभी गोखरू, कभी फूल ... तो कभी चुभता हुआ दंश, जंगली गुलाब का ...    

मेहनत की मुंडेर पे पड़ा होता है
कामयाबी का एक टुकड़ा
जरूरी है नसीब का होना
सौ मीटर की इस रेस को जीतने के लिए  
या फिर ...
तेरे जूडे में जंगली गुलाब लगाने के लिए
xxx
चल तो लेता है हर कोई
पर सकून भरी रहगुज़र नहीं मिलती
सफर से लंबा यादों का बोझ
ओर यादों की पोटली में ताज़ा जंगली गुलाब
शायद शुरू हो नया रास्ता
उम्र के आखरी चौराहे से
xxx
घर के दरवाजे पर छोड़ देता हूं दफ्तर का भारीपन  
की काफी है पत्नी के कन्धों पर
गृहस्थी ओर बच्चों के बस्ते का बोझ
xxx
आखरी पढाव पे टिके रहना संभव नहीं होता     
बर्फ की तरह हथेली से पिघल जाती है कामयाबी 
पहली लहर के साथ निकल जाती है समुन्दर की रेत

नसीब फिर जरूरी हो जाता है कोसने के लिए