स्वप्न मेरे: माँ ...

सोमवार, 25 सितंबर 2017

माँ ...

पाँच साल ... क्या सच में पाँच साल हो गए माँ को गए ... नियति के नाम पे कई बार नाकाम कोशिश करता हूँ खुद को समझाने की ... बस एक यही पल था जिसको मैं सोच न सका था ... उस एक लम्हे के पीछे खड़ा हो कर, उस लम्हे को सोचना चाहूँ तो भी सोच नहीं पाता ... जड़ हो जाता हूँ ... माँ का रिश्ता शायद यही है ... तुम्हें हमेशा अपने आस-पास ही पाता हूँ ...  

ओले, बारिश, तीखी गर्मी, सर पर ठंडी छतरी माँ
जोश, उमंगें, हंसी, ठिठोली, चुस्ती, फुर्ती, मस्ती माँ

घर के बूढ़े, चुप से पापा, चाचा चाची, भैया मैं
जाने किस कच्चे धागे से, सब को जोड़े रखती माँ

ऊँच नीच या तू तू मैं मैं, अगर कभी जो हो जाती 
सब तो आपस में लड़ लेते, पर खुद से ही लड़ती माँ

दर्द, उदासी, दुखड़े मन के, चेहरे से सब पढ़ लेती
छू-मंतर कर देती झट से, उम्मीदों की गठरी माँ 

पतली दुबली जाने किस पल काया में चाबी भरती
सब सो जाते तब सोती, पर सबसे पहले उठती माँ

चिंतन मनन, नसीहत निश्चय, साहस निर्णय, कर्मठता 
पल-पल आशा संस्कार, जीवन में पोषित करती माँ

2 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय दिगम्बर जी -- दिवंगत माँ की निर्मल यादों में खोये भावुक मन से रची गयी ये रचना पढ़ निशब्द हूँ !!!!!!!!!!!!!! माँ का न होना जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है | सचमुच माँ ऐसी ही होती है , जैसा आप लिख पाए हैं | सभी पंक्तियाँ मन के साथ आँखों को भी नम कर गयी | माँ की पून्य स्मृति को कोटिश नमन|

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  2. सच है कि माँ के रहते ही इंसान बच्चा रह पाता है ...
    आपक आभार इन भावनाओं के लिए ...

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